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मैं और  तुम
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शहर  के शोर  - गुल से दूर
स्याह अँधेरे में
जब दुनिया होती है
नींद के आगोश में    
तब मिलते हैं
मैं और तुम।
कोई बंदिशें नहीं ,शिकवा नहीं
बावफा हम नहीं ,बेवफा भी नहीं
तज़ुर्बों से सीखा है
हर चाहत पूरी नहीं होती वरन्
क्या चाँद फलक पे होता ?
बगावत करके अपनों से
कोई  एक  ही  तो मिलता
चाहे तुम ,चाहे  वे
या कोई भी नहीं
पर हमने निभायी है दुनियादारी
देखो ,कितना महफूज़ रखा है तुम्हें
अपने ख्यालों - ख्वाबों में
बिन रोक - टोक  के ,अनवरत
जब तक साँसें चलेंगी
मिलते रहेंगे
मैं और  तुम।  

Rajendra kumar  – (19 June 2014 at 06:13)  

आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (20.06.2014) को "भाग्य और पुरषार्थ में संतुलन " (चर्चा अंक-1649)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

Vaanbhatt  – (19 June 2014 at 19:38)  

बेहतरीन रचना...

Pratibha Verma  – (19 June 2014 at 23:22)  

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

Onkar  – (20 June 2014 at 22:29)  

सुंदर प्रस्तुति

Unknown  – (21 June 2014 at 00:16)  

बहुत बढ़िया

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